१ चाय की चुस्की
एक चाय की चुस्की एक कहकहा अपना तो इतना सामान ही रहा । चुभन और दंशन पैने यथार्थ के पग - पग पर घेर रहे भूत स्वार्थ के । भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा । एक अदद गंध एक टेक गीत की बतरस भीगी संध्या बातचीत की । इन्हीं के भरोसे क्या - क्या नहीं सहा छू ली है सभी , एक-एक इन्तहा । एक कसम जीने की ढेर उलझनें दोनों गर नहीं रहे बात क्या बने । देखता रहा सब सामने ढहा मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा । --- उमाकांत मालवीय