१ चाय की चुस्की

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।

चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग - पग पर घेर रहे
भूत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।

एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या - क्या नहीं सहा
छू ली है सभी , एक-एक इन्तहा ।

एक कसम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों  गर नहीं रहे
बात क्या बने ।
देखता रहा सब सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।
                      ---  उमाकांत मालवीय

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